पतझड़ था छाया
या, यूँ ही गिर पड़े
शाख से पत्ते टूटकर,
थी रात ही कजरारी
या कि
छुप गया सूरज ही रूठकर।
थम गयी फिजायें, मानो
रोक ली हो किसी ने जकड़कर,
नदी को न बहने दिया,
या रुक गई खुद-ब-खुद अकड़कर।
घबरा रहा विधाता सब देख यह
कैसा छा रहा
सृष्टि पर कहर,
सोच में पड़ गया
मन उसका भी अब-
सजाया था मैंने
एक सुन्दर वन सघन,
कर दिया किसने इसे
बे-नूर अब।
मन की व्यथा का सुंदर चित्रण ....
ReplyDeleteसोच में डूब गया मन ...!!
Thank u Anupama ji :)
ReplyDeleteमानव द्वारा की जा रही प्राकृतिक क्षति को व्यंजित करती अच्छी कविता।
ReplyDeleteSdhuwaad Acharya ji. :)
ReplyDeleteआप उन विरल कवयित्रियों में से हैं जिनकी कविता एक अलग राह अपनाने को प्रतिश्रुत दिखती हैं। आपकी कविता में कथ्य और संवेदना का सहकार है जिसका मकसद इस संसार को, प्रकृति को, और मानवता को व्यवस्थित, अक्षुण्ण और प्रेममय देखने की आकांक्षा है।
ReplyDeleteआशीष और शुभकामनाएं।
@Manoj uncle: aapke iss comment ke liye bahut bahut sadhuwaad.Aap sab ka aashirwaad raha toh umeed hai main kisi din bahut hi achi kavayitri bansakungi. :)
ReplyDeleteBeautiful creation !
ReplyDeleteप्रतिमा, यही कहूँगा कि तीनों कविताओं में क्रमशः अभूतपूर्व विकास देखने को मिला है। यह कविता तो भाव के साथ-साथ शिल्प के कारण भी बहुत आकर्षक बन गई है। यह क्रम टूटना नहीं चीहिए। शुभकामनाएं।
ReplyDelete@HArish Uncle: Bas aap sabka saath aur aashirwaad raha toh kafi improvement ho jayega...Thanks anyways..
ReplyDelete@ZEAL: Thank u so much... :)
ReplyDeleteघबरा रहा विधाता सब देख यह
ReplyDeleteकैसा छा रहा
सृष्टि पर कहर,
आपकी सोंच को नमन , सुन्दर अभिव्यक्ति , शुभकामनायें
@Sunil Kumar: Sunil ji aapke iss comment ke liye Sadhuwaad. :)
ReplyDeleteप्रकृति प्रदत्त रचनात्मकता और आचार्यवर से निकटता का प्रतिफल तो मिलना ही है ना . कविता पढ़कर दिनकर जी को २ पंक्तियाँ याद आयी .
ReplyDeleteदाता पुकार मेरी संदीप्ति को जीला दे
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे .
@Ashish Ji: Yeh mera saubhagya hai ki meri kavita ne aapko dinkar ji ki panktiyan yaad dila di.Aabhar aapka... :)
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