Monday, September 26, 2011

मेरिडियन चिकित्सा विज्ञान (Meridianology)

                                                                         (अंक-3)
       -    आचार्य परशुराम राय


पिछले दो अंकों में मेरिडियन चिकित्सा विज्ञान की दार्शनिक पृष्ठभूमि पर चर्चा की गयी और उसकी 12 मुख्य धाराओं के नामों का उल्लेख किया गया था, जिनपर आने वाले बिन्दुओं का इस चिकित्सा पद्धति में प्रयोग किया जाता है। इस अंक में दो धाराओं- फुफ्फुस धारा (lung channel) और बड़ी आँत धारा (large intestine channel) पर चर्चा करेंगे।
फुफ्फुस धारा (Lung Channel) यिन (ऋणात्मक) धारा है और इसकी युगलबन्दी बड़ी आँत की धारा (Large Intestine Channel) से है। यह धारा दोनों ओर छाती के ऊपरी भाग से नीचे की ओर प्रवाहित होती हुई दोनों हाथों के अंगूठों के बाहरी कोनों तक जाती है। इसमें कुल 11 बिन्दु होते हैं। इस धारा का प्रवाहकाल प्रातः 3 बजे से 5 बजे तक होती है। इसकी दिशा केन्द्रापसारी (Centrifugal) है। इसका तत्त्व धातु  है। सामान्यतया उपचार में बिन्दु संख्या 1, 5, 6, 7, 9 और 11 प्रयोग में लाए जाते हैं। इस धारा के बिन्दुओं का उपयोग श्वास-प्रश्वास, चर्म, गरदन, बड़ी आँत और नलिका सम्बन्धी रोगों में किया जाता है। इस धारा के प्रवाह और उसके 11 बिन्दुओं को नीचे चित्र में दिखाया गया है| चित्र को ठीक से देखने के लिए चित्र पर CLICK करें -
 
   "चित्र Dr.Anton Jayasuriya की पुस्तक Clinical Acupuncture से साभार लिया गया है।"
 
बड़ी आँत धारा (Large Intestine Channel) फुफ्फुस धारा की युगल यंग (धनात्मक) धारा है, जो दोनों हाथों की तर्जनी उँगली के नाखून की जड़ से प्रारम्भ होकर हाथों के बाहरी हिस्से से होती हुई  गरदन तक जाती है और पुनः नासिका पुटों के दोनों ओर तक जाती है। शरीर के दोनों ओर से आनेवाली धाराएँ ऊपरी ओठ के ऊपर एक दूसरे को स्पर्श करती हैं। इसका तत्त्व भी धातु है और यह धारा केन्द्राभिमुखी है। इसपर कुल 20 बिन्दु हैं, लेकिन उपचार में प्रायः बिन्दु संख्या 4, 10, 11, 14, 18, 19 और 20 उपयोग में लाए जाते हैं। इसका प्रवाहकाल प्रातः 5 बजे से 7 बजे तक है।
इस धारा के बिन्दुओं पर मालिस कर या दबाव देकर अथवा सूई से छेदकर उपचार किया जाता है। चर्म रोग, दर्द, ऊपरी अंगों के पक्षाघात, कंधे की जकड़न, श्वास रोग, उच्च रक्तचाप और थाइरायड ग्रंथि की शल्य चिकित्सा के उत्पन्न तकलीफों की चिकित्सा में इन बिन्दुओं का उपयोग होता है। इस धारा और इसके बिन्दुओं को नीचे के चित्र की सहायता से समझा जा सकता है| चित्र को ठीक से देखने के लिए चित्र पर CLICK करें- 
 "चित्र Dr.Anton Jayasuriya की पुस्तक Clinical Acupuncture से साभार लिया गया है।"













 

Sunday, September 11, 2011

मेरिडियन चिकित्सा विज्ञान – 2


अंक-2

-    आचार्य परशुराम राय

         पिछले अंक में मेरिडियन चिकित्सा पद्धति की दार्शनिक पृष्ठ-भूमि पर चर्चा की गयी थी। इस अंक में इसके दार्शनिक पृष्ठ-भूमि की शेष बातों पर विचार करते हुए शरीर में मेरिडियन धाराओं के नामों का उल्लेख अभीष्ट है।
        
  पिछले अंक में इस चिकित्सा पद्धति के दार्शनिक परिचय के क्रम में पंचतत्त्व के सिद्धांत का उल्लेख आवश्यक है। चीनी दर्शन ब्रह्माण्ड के सम्पूर्ण दृश्य प्रपंच या घटनाक्रम को पाँच तत्त्वों में विभक्त करता है- काष्ठ, अग्नि, पृथ्वी, धातु और जल। इनके दो क्रमिक चक्र- सृजन और विनाश माने गये हैं। सृजन चक्र में आग से जलकर लकड़ी राख में परिवर्तित होकर पृथ्वी तत्त्व को जन्म देती है। पृथ्वी तत्त्व से धातु का जन्म होता है और धातु से जल निकलता है। जल पेड़ों को सींचकर लकड़ी बनाता है। विनाश चक्र में अग्नि धातु को पिघलाता है, धातु लकड़ी को काटती है, लकड़ी पृथ्वी को ढक लेती है और पृथ्वी पानी को सोख लेती है। प्रोफेसर जोसफ नीडम इन्हें क्रमशः ठोसपन, दाहकता, उत्पादकता, गलनीयता और तरलता को इनके गुण के रूप में देखते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि इन पाँचो तत्त्वों की स्वतंत्र सत्ता होते हुए भी ये एक-दूसरे से संचालित होते हैं या अपने अस्तित्व के लिए एक दूसरे पर आश्रित हैं। पारम्परिक चीनी चिकित्सा पद्धति में ब्रह्माण्ड के दृश्य घटनाक्रम को इन पाँच तत्त्वों को निम्नलिखित रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है-
 

तत्त्व
दिशा
ऋतु
मौसम के अनुसार विकार
रंग
स्वाद
काष्ठ
पूर्व
वसन्त
वात
हरा
खट्टा
अग्नि
दक्षिण
ग्रीष्म
ऊष्मा
लाल
कटु (कड़वा)
पृथ्वी
मध्य
वर्षा
आर्द्रता
पीला
मीठा
धातु
पश्चिम
शरत्
खुश्की
श्वेत
अम्लीय
जल
उत्तर
शीत
ठंड
काला
लवणीय (नमकीन)
  

     
  मेरिडियन चिकित्सा पद्धति ची (Chi) प्राण सम्पूर्ण जैविक प्रक्रिया का कारक है, जीवनी शक्ति है तथा यिन (Yin) और यंग (Yang) इसी की अभिव्यक्ति हैं। जन्म के समय यह प्राण हमारे शरीर में प्रवेश करता है और मृत्यु के समय इसे छोड़ देता है। यह प्राण एक व्यक्ति के शरीर में जीवन भर लगातार विशेष सुनिश्चित और व्यवस्थित मार्गों से धाराओं के रूप में प्रवाहमान रहता है जिसे हम मानव शरीर का मेरिडियन कहते हैं। अपनी प्रवाहित दिशा के अनुसार इन्हें यिन (ऋणात्मक) और यंग (धनात्मक) धाराओं के नाम से जाता है।
     
 शारीरिक मेरिडियन की अनंत धाराएँ हमारे शरीर में अनवरत रूप से प्रवाहित होती रहती हैं। इन धाराओं को चार भागों में विभक्त किया गया है- पृष्ठीय, मध्यवर्ती, अपसारी (Divergent) और आन्तरिक। यहाँ केवल पृष्ठीय (Superficial) धाराओं और उनके मुख्य विन्दुओं पर चर्चा की जाएगी जिनका चिकित्सा के क्षेत्र में सर्वाधिक प्रयोग होता है। इनकी कुल संख्या 12 है और इन्हें अंगों के नाम से जानते हैं। इनकी प्रकृति के अनुसार इन्हें युगल-बंद किया गया है-
  फुफ्फुस धारा (Lung Channel)  और  बड़ी आँत धारा (Large Intestine Channel)
    अमाशय धारा (Stomach Channel) और प्लीहा धारा (Spleen Channel)
    हृदय धारा (Heart Channel) और छोटी आँत धारा (Small Intestine Channel)
  मूत्राशय धारा (Urinary Bladder Channel) और वृक्क धारा (Kidney Channel)
   हृदय-आवरण धारा (Pericardium Channel) और सन्जिआओ या ट्रिपुल वार्मर धारा (Sanjiao or Triple  Warmer Channel)

अगले अंक से इनमें से दो-दो धाराओं और चिकित्सा में प्रयुक्त होने वाले बिन्दुओं पर चर्चा की जाएगी।
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Tuesday, August 30, 2011

मेरिडियन चिकित्सा विज्ञान (Meridianology)

                                              अंक-I
                                                         -    आचार्य परशुराम राय
 
मनुष्य अपने अस्तित्व में आने के समय से ही बाह्य प्रकृति और अन्तःप्रकृति की समस्याओं का समाधान पाने के लिए प्रयत्नशील रहा है। परिणाम स्वरूप विभिन्न विज्ञान एवं उनकी शाखाएँ-प्रशाखाएँ अस्तित्व में आयीं। बाह्य प्रकृति के परिवर्तन हमारी अन्तःप्रकृति को अनवरत प्रभावित करते रहते हैं। इसके अतिरिक्त हमारे रहन-सहन एवं सोचने की शैली हमारी अन्तःप्रकृति को सर्वाधिक प्रभावित करते हैं और इससे हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की दिशा निर्धारित होती है। हमारे स्वास्थ्य की रखवाली के लिए अनेक चिकित्सा प्रणालियों का जन्म हुआ। इन्हीं चिकित्सा-प्रणालियों में एक है मेरिडियन चिकित्सा विज्ञान। इसके अन्तर्गत एक्युपंक्चर और एक्युप्रेशर के द्वारा चिकित्सा की जाती है। इस चिकित्सा पद्धति का उल्लेख सुश्रुत-संहिता में भी मिलता है। लेकिन इसे एक स्वतंत्र चिकित्सा पद्धति के रूप में संस्थापित करने का श्रेय चीन के उन महान चिकित्सा-शास्त्रियों को जाता है, जिन्होंने अपने अथक परिश्रम से इसे मानव जाति के कल्याण के लिए सम्पोषित और संवर्धित किया।
जिस प्रकार भारतीय चिकित्सा-पद्धतियों का भारतीय दर्शन से गहरा सम्बन्ध है, उसी प्रकार इस चीनी चिकित्सा-पद्धति का चीनी दर्शन से। वैसे चीनी दर्शन और भारतीय दर्शन काफी निकट हैं। दोनों ही दर्शनों के अनुसार मानव शरीर या जीव इस अखिल ब्रह्माण्ड की अनुकृति है, अर्थात् ब्रह्माण्ड स्थूल है तो मानव शरीर उसका सूक्षम रूप है। हम यहाँ दोनों दर्शनों की तुलना न कर चीनी दर्शन के उस पहलू को स्पर्श करेंगे, जिसपर यह चिकित्सा पद्धति विकसित हुई है।
चीनी दर्शन, विशेषकर ताओ दर्शन, के अनुसार प्रारम्भ में यह ब्रह्माण्ड बिलकुल अव्यवस्थित था। लेकिन यिन (Yin) और यंग (Yang) दो ऋणात्मक और धनात्मक ऊर्जाओं का उसमें आधान होने से एक व्यवस्था का जन्म हुआ।
ये दोनों ऊर्जाएँ एक-दूसरे में इस प्रकार अनुस्यूत हैं कि उन्हें अलग करना कठिन है। इस सन्दर्भ में महाकवि कालिदास की पंक्तियाँ वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये। जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ।द्रष्टव्य हैं। इसका अर्थ है कि वाणी और उसका अर्थ जिस प्रकार एक-दूसरे से गुम्फित हैं, उसी प्रकार माता पार्वती एवं भगवान शिव, और ऐसे जगत के दोनों माता-पिता के रूप में मैं उनकी वन्दना करता हूँ। यही स्थिति यिन और यंग की है। इन दोनों का संतुलन ही स्वास्थ्य है और असन्तुलन रोग का कारक। चाहे बाह्य-प्रकृति हो या जीव की अन्तःप्रकृति, इनमें असन्तुलन से उपद्रव शुरु हो जाता है। बाह्य-प्रकृति में इन ऊर्जाओं के असन्तुलन से भूचाल, ज्वालामुखी, तूफान आदि जैसे उपद्रव देखे जाते हैं। शरीर के विभिन्न आन्तरिक अंगों से शरीर के बाहरी सतह की ओर और बाहरी सतह से आंतरिक अंगों की ओर इन ऊर्जाओं की धाराएँ (channels) प्रवाहित होती रहती हैं। इन प्रवाहमान धाराओं में व्यवधान उत्पन्न होने से हम अस्वस्थ हो जाते हैं। ये धाराएँ हमारी शारीरिक प्रकृति को बाह्य-प्रकृति से जोड़ती हैं। यिन और यंग ऊर्जाएँ ज़ैंग (Zang) और फू (Fu) अंगों को संयोजित करती हैं। ज़ैंग वे अंग होते हैं जो संचय करने का काम करते हैं और फू वे अंग होते हैं जो ग्रहण करने का काम करते हैं। चीनी भाषा में जैंग का अर्थ संचय करना और फू का अर्थ ग्रहण करना है। बीजिंग से प्रकाशित इसेंशियल्स आफ चाइनिज़ एक्युपंक्चर नामक पुस्तक में हमारे शरीर में यिन और यंग ऊर्जा धाराओं के सम्बन्ध में बताया गया है कि हमारे शरीर के ऊतक (Tissues) और अंग अपनी स्थिति और क्रिया के अनुसार या तो यिन से या फिर यंग से जुड़े होते हैं। शरीर के धड़ और हाथ-पाँव की बाहरी सतह यंग से जुड़े होते हैं, जबकि ज़ैंग-फू आन्तरिक अंग यिन से। यदि शरीर की केवल ऊपरी सतह को लिया जाए, तो पिछला हिस्सा यंग से और सामने का हिस्सा यिन से जुड़ा है, कमर के ऊपर का हिस्सा यंग से तो नीचे का यिन से। यदि हाथ-पाँव के पार्श्वभाग यंग से जुड़े हैं, तो सामने के भाग यिन से। यदि केवल जैंग-फू अंगों की बात की जाए, तो फू (ग्रहण करने वाले अंग) यंग धारा से जुड़े हैं, जबकि जैंग (संचय करे वाले अंग) यिन से। प्रत्येक जैंग-फू अंग स्वतंत्र रूप से यिन और यंग ऊर्जाओं से ओत-प्रोत हैं, जैसे हृदय के यिन और यंग, किडनी के यिन और यंग आदि। संक्षेप में कहा जाय तो मानव शरीर के सभी अंग और उसकी गतिविधियाँ यिन और यंग के संबन्धों से समझी जा सकता है। वास्तव में इन्हें धनात्मक और ऋणात्मक ध्रुवों की संज्ञा दी जा सकती है।
ये दोनों ऊर्जा-धाराएँ एक दूसरे के कार्य और कारण हैं। एक के अभाव में दूसरे के अस्तित्व की कल्पना असम्भव है। ये दोनों एक दूसरे में परिवर्तित होते रहते हैं। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। इनका प्रवाह कहीं केन्द्राभिसारी (Centripetal) है, तो कहीं केन्द्रापसारी (Centrifugal)। लगता है कि इनके इसी अनंत रूप का दर्शन करने के बाद ऋषियों ने कहा- सर्वं प्राणमयं जगत्, सम्पूर्ण संसार प्राणमय (प्राण से ओत-प्रोत) है। अतएव इस जगत् या शरीर में जो भी परिवर्तन होते हैं वे इन ऊर्जाओं की विरोधी और अन्योन्याश्रित प्रकृति के कारण होते हैं।

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Tuesday, August 16, 2011

नारी हूँ मैं

   


एक आंधी सी मन में उठी,
 फिर भी,
निशब्द हूँ,
हुआ ज़ार ज़ार मन,
फिर भी,
 स्तब्ध हूँ,
गुज़री हूँ नरक से,
तब भी,
शुद्ध पड़ी हूँ,
सम्मुख है समुन्दर,
लेकिन,
प्यासी और बेबस हूँ, 
आंसुओं को पीती हुई,
खुशिओं में औरों की
जीती हूँ,
खुद से हार गई
पर,
दुनिया से जीती हूँ,
एक आग के  दरिया में
डूबकर गुजरी हूँ, 
फूलों में पली थी कभी,
आज  काँटों मे है जीवन,
अब
ना केवल  नाम की रही,
हकीकत में हुई
समय पर भरी,
नारी हूँ मैं | 
  
  

Saturday, April 23, 2011

यह कैसा कहर

 

पतझड़ था छाया
या, यूँ ही गिर पड़े
शाख से पत्ते टूटकर,
थी रात ही कजरारी
या कि
छुप गया सूरज ही रूठकर।
थम गयी फिजायें, मानो
रोक ली हो किसी ने जकड़कर,
नदी को न बहने दिया,
या रुक गई खुद-ब-खुद अकड़कर।
घबरा रहा विधाता सब देख यह
कैसा छा रहा
सृष्टि पर कहर,
सोच में पड़ गया
मन उसका भी अब-
सजाया था मैंने
एक सुन्दर वन सघन,
कर दिया किसने इसे

बे-नूर अब।      

Sunday, April 10, 2011

यादें

                            



               

 
आपका

कड़ाके की सर्दियों में

खिलती धूप सा खड़े होना,

कुछ सर्द रातें,

आग की गर्म लपटें

और आपका

दूर होकर भी पास होना,

याद है आज भी हमें।

हमारी नादानियों पर

आपका मुस्कुराना,

तमाम रात साथ बैठ

खामोश निगाहों का

आपस में गुफतगू करना,

बहती नदी का किनारा

लहरों का तट से

टकराकर लौट जाना,

पहाड़ों की शीतल वादियों में,

कुछ दूर साथ चलना,

निशब्द फिज़ाएं, और

मधुर गीत गुनगुनाना,

एक लम्बा सफ़र

और

आपकी गोद में

सिर रखकर सोना,

याद है आज भी हमें,

कभी आपको करीब पाकर

फिर से खो देना........

Friday, March 11, 2011

बाक फ्लावर चिकित्सा पद्धति

     अंक – 5
      - आचार्य परशुराम राय

 28.  स्क्लेरान्थस (Scleranthus) : अनिश्चितता, अनिर्णय, हिचक, द्विविधा, असंतुलन। दो चीजों में चुनाव करना कठिन हो जाता है, अत: निर्णय लेने में काफी समय लग जाता है जिससे कई मौके उनके हाथ से निकल जाते हैं। परिवर्तनशील मानसिक अवस्था के कारण ध्यान केन्द्रित करना कठिन। कभी खुशी तो कभी उदासी, कभी उत्साहित तो कभी हतोत्साहित, कभी निराशा और कभी आशा, कभी हँसना, कभी रोना। द्वैत भाव के आदर्श जकड़न की औषधि है स्क्लेरान्थस। यह औषधि जेंशियन और मिम्युलस के साथ दी जाए तो अधिक उपयोगी सिद्ध होती है।
29.      स्टार आफ बेथलहम (Star of Bethlehem) : मानसिक  या  शारीरिक  सदमे  का दुष्परिणाम। डाँ. बॉक इसे 'दुख और दर्द का बेथलहम     शामक और आरामदायक' कहते हैं। सदमा चाहे दुर्घटना के कारण हो या अचानक दुखद समाचार से या भय अथवा महानिराशा से स्टार आफ बेथलहम सदमे से मुक्त कर देगा।
30.    स्वीट चेस्टनेट (Sweet Chestnut) :चरम मानसिक वेदना और निराशा। इस औषधि के विषय में डाँ. बाक लिखते हैं - 'यह उनके लिए हैं जो भयंकर, घोर मानसिक निराशा में डूबे हों, उन्हें लगता है कि आत्मा स्वयं ही निराशा को झेल रही है। घोर निराशा, जब लगे कि वे सहन शक्ति की चरमसीमा पर पहुँच गये हैं।' लेकिन ये इच्छा शक्ति के धनी और बहादुर होते हैं। ये चेरी प्लम के रोगियों की तरह आत्म हत्या नहीं करते। इनकी निराशा गॉर्स से भी गहरी होती है। इनकी मानसिक अवस्था एग्रीमोनी से काफी अधिक गंभीर होती है।
31.     वरवेन (Vervain) :  घोर परिश्रम, तनाव, बहुत अधिक उमंग। बरबेन औषधि उनके लिए है जो घोर परिश्रम करते हैं। हमेशा काम के तनाव में रहते हैं तथा काम करने के लिए सदा उत्साहित रहते हैं। जो अपनी इच्छाशक्ति से अपनी शारीरिक क्षमता से अधिक काम करते हैं। उनके रोगों में यह दवा रामबाण है।
32.    वाइन (Vine) :वाइन के लोग काफी महत्वाकांक्षी होते हैं। उन्हें शक्ति चाहिए, प्राधिकार चाहिए और इसे पाने के लिए बेरहमी/निष्ठुरता की किसी भी समा तक जा सकते हैं। उन्हें अपने आप पर विश्वास रहता है, उन्हें लगता है कि हर चीज वे दूसरों से अच्छा जानते हैं। दूसरों को वे नीची नजर से देखते हैं। हमेशा पावर के लिए चाह, दूसरों पर अपनी इच्छा थोपना, दूसरों से हमेशा आज्ञाकारिता की अपेक्षा और माँग। संक्षेप में वे तानाशाह होते हैं। ऐसे लोगों को बीमारी में वाइन की आवश्यकता पड़ती है।
33.    वालनट (Walnut) :बालनट को मैं इसके खोजी डाँ. एडवर्ड बाक के शब्दों में यहाँ रखता हूँ - बालनट जीवन में आगे बढ़ते चरण की औषधि है, जैसे बच्चों के दाँत निकलने के समय की परेशानियाँ, यौवन के आरम्भ के समय की कठिनाइयाँ, जीवन में परिवर्तन के समय मानसिक कठिनाइयाँ आदि। जीवन में लिए जाने वाले महत्वपूर्ण निर्णयों के समय, जैसे - धर्म परिवर्तन, पेशा परिवर्तन या एक देश छोड़कर दूसरे देश में रहने का निर्णय। यह औषधि उनके लिए है जिन्होंने अपने जीवन में महत्वपूर्ण कदम उठाने का निर्णय लिया है, यह पुरानी परम्पराओं से मानसिक संबंधो को तोड़ती है, पुरानी सीमाओं और प्रतिबन्धों को छोड़ने में और नये तरीके से जीने में सहायता करती है। इसलिए यह किसी पुरानी बीमारी या वंशानुक्रम की बीमारी के इलाज में इस औषधि की सहायता लेना आवश्यक होता है। इसके अतिरिक्त जो नशीले पदार्थों के आदी हो चुके हैं, उन्हें भी उनसे मुक्ति दिलाने में यह दवा सहायक होती है।
34.   वाटर वायलेट (Water Violet) :अंहकार, एकाकीपन। वाटर वायलेट के रोगी सज्जन और बहुत ही सक्षम होते हैं। उनमें आंतरिक शान्ति होती है। इसलिए वे बड़े खुश होते हैं। यदि उन पर सब कुछ छोड़ दिया जाये। वे स्वावलम्बी होते हैं और अपने रास्ते पर चलते हैं, दूसरों के मामलों में न तो वे दखल देते हैं और न ही दूसरों का अपने मामले में दखल चाहते हैं। वे अपने दुख और परीक्षा की घड़ियाँ खुद ही चुपचाप झेलते हैं। जब बीमार होते हैं तो अकेले रहना पसंद करते हैं और नहीं चाहते कि उन्हें कोई परेशान करे। वे बड़े ही प्रतिभाशाली और चतुर होते हैं तथा कठिन घड़ी में भी उनकी शांति भंग नहीं होती। इससे उनमें अहंकार उत्पन्न होता है और वे स्वयं को दूसरों से बहुत बड़ा समझने लगते हैं, दूसरों का तिरस्कार करने लगते हैं, उन्हें झुकाने लगते हैं। ऐसी अवस्था में उन्हें मानसिक और शारीरिक तनाव की बीमारियाँ होती हैं। अतएव ऐसे लोगों के लिए वाटर वायलट है।
35.   व्हाइट चेस्टनट (White Chestnut) :अनावश्यक दुराग्रहपूर्ण विचार, मानसिक तक-वितर्क और वार्तालाप। वे अपने आप से तक-वितर्क करते रहते हैं। डाँ. बाक हते हैं - ग्रामोफोन के रिकार्ड की तरह विचारों की सूई सदा घूमती रहती है। ऐसे लोगों की औषधि हैं - व्हाइट चेस्टनेट।
36.     वाइल्ड ओट (Wild Oat) : अनिश्चितता, निराशा, असन्तोष। यह उन लोगों की दवा है जो बहुमुखी प्रतिभा के धनी होते हैं, लेकिन यह निर्णय नहीं कर पाते कि वे उसका उपयोग कैसे करें या कौन सा पेशा अपनाएँ। इस तरह जीवन में निर्णय लेने में काफी विलम्ब हो जाता है, जिससे उनमें निराशा और असन्तोष घर कर जाता है। यही उनकी बीमारियों का कारण बनता है। ऐसी स्थिति में यह औषधि काफी गुणकारी है।
37.     वाइल्ड रोज (Wild Rose) : जो लोग अपनी बीमारियों, अनुकूल काम अथवा नीरस जीवन से तंग आकर उन्हें त्याग देते हैं। यद्यपि वे कोई शिकायत नहीं करते, किन्तु वे स्वस्थ होने के लिए अथवा दूसरा काम खोजने का प्रयत्न नहीं करते अथवा छोटी-छोटी खुशियों का आनन्द नहीं लेते और उदास रहते हैं। ऐसे लोगों की बीमारियों का इलाज वाइल्ड रोज है।
38.      विल्लो (Willo) : कुढ़न, कड़वाहट। जो हर चीज के लिए हमेशा दूसरों पर दोषारोपण करते हैं तथा अपने अन्दर कुढ़न और कड़वाहट भरे रहते हैं, उनके लिए यह औषधि अमृत हैं।
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