पतझड़ था छाया या, यूँ ही गिर पड़े शाख से पत्ते टूटकर, थी रात ही कजरारी या कि छुप गया सूरज ही रूठकर। थम गयी फिजायें, मानो रोक ली हो किसी ने जकड़कर, नदी को न बहने दिया, या रुक गई खुद-ब-खुद अकड़कर। घबरा रहा विधाता सब देख यह कैसा छा रहा सृष्टि पर कहर, सोच में पड़ गया मन उसका भी अब- सजाया था मैंने एक सुन्दर वन सघन, कर दिया किसने इसे बे-नूर अब।