पतझड़ था छाया
या, यूँ ही गिर पड़े
शाख से पत्ते टूटकर,
थी रात ही कजरारी
या कि
छुप गया सूरज ही रूठकर।
थम गयी फिजायें, मानो
रोक ली हो किसी ने जकड़कर,
नदी को न बहने दिया,
या रुक गई खुद-ब-खुद अकड़कर।
घबरा रहा विधाता सब देख यह
कैसा छा रहा
सृष्टि पर कहर,
सोच में पड़ गया
मन उसका भी अब-
सजाया था मैंने
एक सुन्दर वन सघन,
कर दिया किसने इसे
बे-नूर अब।
आपका
कड़ाके की सर्दियों में
खिलती धूप सा खड़े होना,
कुछ सर्द रातें,
आग की गर्म लपटें
और आपका
दूर होकर भी पास होना,
याद है आज भी हमें।
हमारी नादानियों पर
आपका मुस्कुराना,
तमाम रात साथ बैठ
खामोश निगाहों का
आपस में गुफतगू करना,
बहती नदी का किनारा
लहरों का तट से
टकराकर लौट जाना,
पहाड़ों की शीतल वादियों में,
कुछ दूर साथ चलना,
निशब्द फिज़ाएं, और
मधुर गीत गुनगुनाना,
एक लम्बा सफ़र
और
आपकी गोद में
सिर रखकर सोना,
याद है आज भी हमें,
कभी आपको करीब पाकर
फिर से खो देना........